दूध से भरा पतीला,
चूल्हे पर चढ़ाते हुए यूँही ख्याल आया,
पुराने ज़माने अच्छे हुआ करते थे।
मासूम हुआ करते थे वो दिन,
जब शाम को,
ख्वाबों वाला फ्रॉक पहन कर,
बाबा की छोटी ऊँगली थामे,
मदर डेरी से दूध लेने जाती थी।
बाबा के हाथ में,
दस पंद्रह रूपए के टोकन,
अली बाबा का खज़ाना लगता था।
भूखी मशीन टोकन निगलती जाती,
और पलक झपकते ही,
स्टील के बर्तन में संगमरमर तैरने लगता।
अब ना ही बर्तन में संगमरमर तैरता है,
और ना ही बाबा की उँगलियाँ घुमाने ले जाती है,
तैरता हुआ दिखता है तो बस प्लास्टिक,
और प्लास्टिक की थैलियाँ।
दूध से भरा पतीला,
चूल्हे पर चढ़ाते हुए यूँही ख्याल आया,
पुराने ज़माने अच्छे हुआ करते थे।