Monday, December 31, 2012

आखिर क्यों?



लाल परदे से झांक रही थी 
एक किरण 
पतले परदे, उस खिड़की पर टंगे थे 
एक सवाल उठा 
आखिर क्यों कैद हो जाते हैं लोग 
अपनी ही यादों में?

खिड़की के सामने एक पेड़ है 
हरा हुआ करता था कभी 
आज छोटा दिखाई पड़ रहा है 
थोडा बेजान भी मालूम पड़ता है 
उसने भी कभी यह सवाल किया होगा 

आखिर क्यों कैद हो जाते हैं लोग 
अपनी ही यादों में?

ध्यान से देखने पर जान पड़ा 
पेड़ की कोख में कुछ तिनके सजे है 
एक घोसला था, संजो के रखा था 
कोई याद रही होगी शायद 
सवाल फिर वही उठा 

आखिर क्यों कैद हो जाते हैं लोग 
अपनी ही यादों में?


All Rights Reserved: Nidhi Jain (30/12/2012)

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Saturday, July 21, 2012

कुछ बातें




बातें, 
कुछ बातें बस यूँही हो जाती हैं
क्या शोर क्या शहर
अल्फाजों में कहानी लिखी जाती है


ऐसी ही एक बात हुई 
और बात ने सवाल कर लिया 
कब तक बातों में संसार ढूँढोगी?
मैंने सिर्फ सिर हिला दिया 

मानो झकझोड़ दी गयी, और 
इसी बात ने शायद जगाया मुझे 
धुली हुई नई चादर ने 
एक बार फिर से रोका मुझे 

अब ना रुकना था 
यह जगह अब मजलिस नहीं 
रुकी, उठी और चल पड़ी 
वो बात फिर अधूरी ही रह गयी 


All Rights Reserved: Nidhi Jain (21/07/2012)

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Saturday, May 12, 2012

बुलबुले

 

अभी तो कितनी बूंदे गिरी
यही गिन रही थी मैं

चकित हो कर पानी में बनते
बुलबुले देख रही थी मैं

तंग खिड़की से हाथों को आज़ाद किया
मधुर संगीत निकला
पड़ी जब बूंदे लाल हरी चूड़ियों पर
खन खन की आवाज़ सुनती रह गयी मैं

अब बस बाँध टूट गया
मन विचलित हो उठा
ऐसी व्याकुलता, समझाए ना समझ आये
बेसुध सी हो कर, बस भाग रही थी मैं

छन छनाती पायल रुकी पानी के समीप 
वही बुलबुले अब पैरो से खेल रहे थे
कितना आशार्यजनक था
पानी में यूँही प्रतिछवि देख रही थी मैं


All Rights Reserved: Nidhi Jain (12/05/2012)

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